प्रेम कविता
मर्ज बढाकर दवा का नाम छुपाती हो।
अनजान बनकर अपनों का एहसास कराती हो।
खामोश रहकर दिल में दस्तक दे जाती हो।
कौन हो तुम जो मुझे इतना सताती हो।
खुसबू बनकर फूलो को क्यों छुपाती हो।
आशा की किरणे बिखेरकर ,फिर घटा बन छा जाती हो।
रोम रोम पुलकित होता भी नहीं की असमंजस बनकर उलझने बढाती हो।
कौन हो तुम जो मुझे इतना सताती हो।
मेरी मनो पहचान बताकर गुमसुदगी को हटा दो।
नयन से नयन मिलकर अपनी हाय को हटा दो ।
आओ विश्राम कर मेरे संवेदना से संवाद करो।
अब समक्ष होकर इस विरह की वेदना को मिटा दो।
मेरी आदत तो नहीं थी शरारत करने की।
तुम्हारी अदाओ के कारण शराफत भूल जाता हूँ।
शब्दों से नजाकत करता हूँ चाहत को हकीकत बनता हूँ।
और तुमको नाराज कर मुसीबत को दावत देता हूँ।